शुंग वंश | कण्व वंश | आंध्र - सातवाहन वंश | sung vansh | kanv vansh

 शुंग वंश | कण्व वंश | आंध्र - सातवाहन वंश 

 

शुंग वंश | कण्व वंश | आंध्र - सातवाहन वंश 


शुंग वंश (187 से 75 .)

 

इस वंश की स्थापना 185 .पू. में मौर्य सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने अंतिम मौर्य शासक वृहद्रथ की हत्या करके की 

 

इस वंश की उत्पत्ति के बारे में कोई निश्चित जानकारी नहीं है सम्भवत: शुंग उज्जैन प्रदेश के थे जहाँ इनके पूर्वज मौर्यों की सेवा में थे 

 

पुष्यमित्र शुंग कट्टर ब्राह्मणवादी था | उसने दो अश्वमेघ यज्ञ का अनुष्ठान किया | सुप्रशिद्ध संस्कृत वैयाकरण पंतजलि उसके अश्वमेघ यज्ञ के पुरोहित थे 

 

मौर्य सम्राट अशोक द्वारा बौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार के फलस्वरूप इसने हिन्दू धर्म को उसने पुनर्जीवित किया 

 

बौद्ध की रचनाएं पुष्यमित्र को बौद्धों का हत्यारा तथा बौद्ध मठों और विहारों को नष्ट करने वाला बताती है कहा जाता है कि पुष्यमित्र शुंग ने अशोक द्वारा निर्मित 84000 स्तूपों को नष्ट कर दिया था 

 

मनु ने विपत्ति के समय ब्राह्मण को अपने वर्ण से भिन्न पेशा अपनाकर जीविका चलाने की छूट प्रदान की है 

 

शुंग काल में विदिशा का राजनैतिक एवं सांस्कृतिक महत्व सर्वाधिक हो गया है 

 

शुंग वंश के नवें शासक भागभद्र (भागवत) के शासन काल के 14वें वर्ष तक्षशिला के यवन शासक " एण्टियालकीट्स " का राजदूत " हेलियोडोरस "

विदिशा में वासुदेव के सम्मान में गरुण स्तम्भ स्थापित किया 

 

शुंग काल में संस्कृति भाषा का पुनरुत्थान हुआ | इसके उत्थान में महर्षि पंतजलि का विशेष योगदान था 

 

मनुस्मृति का वर्तमान स्वरूप की रचना इसी युग में हुई 

 

  हेलियोडोरस का गरुण स्तम्भ हिन्दू धर्म  संबंधित प्रथम प्रस्तर स्मारक है इस काल में भगवान धर्म का उदय हुआ तथा वासुदेव विष्णु की उपासना प्रारम्भ हुई 

 

मौर्यकाल में स्तूप कच्ची ईटों और मिट्टी की सहायता से बनते थे परन्तु शुंग काल में उनके निर्माण में पाषाण का प्रयोग किया गया है 

 

कनिंघम महोदय ने 1873 में भरहुत स्तूप का पता लगाया उसकी वेष्टनी और तोरणद्वार अधिकांशत: शुंग कालीन थे 

 

शुंग कालीन कला के उदाहरण

                         विदिशा का गरुणध्वज

                         भाजा का चैत्य एवं विहार 

                         अजन्ता का नवाँ चैत्य मंदिर 

    `                    नासिक तथा कार्ले के चैत्य 

                         मथुरा की अनेक यक्ष यक्षणियों की मूर्तियाँ 

 

कण्व वंश (75 से 30 .पू.)

 

 

 भारत का इतिहास विश्वासघात के किस्सों से भरा हुआ हैं। लगभग 73 ईसा पूर्व तक भारत के सबसे बड़े साम्राज्य मगध पर शुंग वंश का आधिपत्य रहा। शुंग के अन्तिम शासक देवभूति के शासनकाल के दौरान वासुदेव अमात्य थे।

 वासुदेव चाहते थे कि कैसे भी करके अगर देवभूति शुंग को मौत के घाट उतार दिया जाए, तो वो एक विशाल साम्राज्य के अधिपति बन जाएंगे। इसी वजह से मौका पाकर उन्होंने शुंग वंश के अंतिम शासक देवभूति को मारकर राज्य की सभी महाशक्तियों को अपने हाथ में ले लिया।

 इसके साथ ही मगध में एक नए राजवंश का उदय हुआ, जिसका नाम था कण्व वंश. कण्व वंश की स्थापना ईसा से 73 वर्ष पूर्व हुई थी। इसके साथ ही वासुदेव इस साम्राज्य के प्रथम शासक बने।

 कण्व वंश की स्थापना से लेकर अंत तक 4 राजाओं ने शासन किया था। इनकी शासन अवधि 45 वर्ष रही। इन 45 वर्षों (73 ईसा पूर्व से 28 ईसा पूर्व तक) तक शासन किया था 

 

आंध्र - सातवाहन वंश

 

पुराणों में सातवाहन वंश को आंध्र जातीय तथा आन्ध्रभृत्य कहा गया है 

 

इस वंश की स्थापना सिमुक ने की थी इस वंश के इतिहास के लिए मत्स्य तथा वायु पुराण विशेष रूप से उपयोगी है 

 

सर्वमान्य तौर पर सातवाहनों का मूल निवास स्थान महाराष्ट्र का प्रतिष्ठान माना जाता है सिमुक का प्रथम सातवाहन शासक माना जाता है 

 

 सातकर्णी प्रथम - यह इस वंश का प्रथम योग्य शासक था इसकी उपलब्धियों का ज्ञान नायानिका के नासिक लेख से होता है 

 

पुराणों में शातकर्णी प्रथम को कृष्ण का पुत्र कहा गया है इसने सो अश्वमेध तथा एक राजसूय यज्ञ का अनुष्ठान किया था 

 

शातकर्णी प्रथम ने गोदावरी तट पर स्थित प्रतिष्ठान को अपनी राजधानी बनाई 

 

शातकर्णी प्रथम ने मालव शैली को गोल मुद्राएँ तथा अपनी पत्नी के नाम पर रजत मुद्राएं उत्कीर्ण करवायी 

 

उसकी राजसभा में " वृहत्कथा " से रचयिता गुणाढ्य पैशाची प्राकृत में तथा " कातन्त्र " नामक संस्कृत व्याकरण के लेखक शर्ववर्मन निवास करते थे 

 

 गौतमी पुत्र शातकर्णी (106 से 130 .)यह इस वंश का 23 वाँ तथा सबसे महान शासक था 

 

उसने अपने को एक मात्र ब्राह्मण कहा, शकों को हराया तथा क्षत्रिय शासकों के दर्प को चूर किया 

 

गौतमी पुत्र शातकर्णी ने वेणकटक स्वामी (नासिक जिला) की उपाधि धारण की तथा वेणकटक नामक नगर की स्थापना की 

 

सातवाहन दक्कन के एक कबीले के लोग थे लेकिन वे ब्राह्मण बना दिये गये थे 

 

ब्राह्मणों को भूमिदान या जागीर देने वाले प्रथम शासक सातवाहन ही थे किन्तु उन्होंने अधिकतर भूमिदान बौद्ध भिक्षुओं को ही दिया 

 

 सातवाहन काल में व्यापार व्यवसाय में चाँदी एवं ताँबे के सिक्कों का प्रयोग होता था जिसे कार्षापण कहा जाता था 

 

सातवाहन काल में दक्कन की सभी गुफाएं बौद्ध धर्म से संबंधित हैं यह दो सौ वर्ष का काल दक्षिण में बौद्ध धर्म के लिए सर्वाधिक गौरवशाली युग था 

 

सातवाहनों ने कई प्रशानिक इकाइयाँ वही रखी जो अशोक के काल में पाई गई है उसने समय में जिला को अशोक के काल की तरह ही आहार कहते थे उनके अधिकारी मौर्य काल की तरह ही अमात्य और महामात्य कहलाते थे 

 

सातवाहन ने ब्राह्मणों और बौद्ध भिक्षुओं को कर मुक्त ग्रामदान देने की प्रथा आरम्भ की

 

सातवाहन राज्य में बौद्ध धर्म के महायान सम्प्रदाय का बोलबाला था खासकर शिल्पियों के बीच

 

सातवाहन काल में पश्चिमोत्तर दक्कन या महाराष्ट्र में अत्यंत दक्षता और लगन के साथ ठोस चट्टानों को काटकर कर चैत्य एवं विहार बनाए गये | वस्तुत: यह प्रक्रिया 200 .पू. के आस पास पास शताब्दी पहले ही आरम्भ हो चुकी थी 

चैत्यबौद्ध मंदिर या प्रार्थना स्थल 

विहारभिक्षु निवास 

 

इक्ष्वाकुओं ने ही दक्षिण भारत में सर्वप्रथम ईंट के हिन्दू मंदिर नागार्जुनी कोण्डा में बनवाये 

 

सातवाहनों की राजकीय भाषा प्राकृत तथा लिपि ब्राह्मी थी सातवाहन नरेश हाल ने अपने प्रसिद्ध ग्रथ गाथा सप्तशती की रचना इसी भाषा में की 

 

  स्मृति काल में राजा जो स्वयं को देवता का प्रतिनिधि मानते थे सातवाहन काल आते - आते वे स्वयं के साथ देवताओं का तादात्म्य करने लगे | जैसे गौतमी पुत्र सातकर्णी ने स्वयं को कृष्ण, बलराम और संकर्षण का रूप स्वीकार किया था 

 

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Shailesh Shakya 
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